कोरोना जा जा जा
कोरोना जा जा जा*
(Inner Voice/ Nityanootan Broadcast Service)
*भारत उत्सवधर्मिता का देश है । हम गम-खुशी सब को उत्सव रूप में लेने के अभ्यस्त है । मेरे एक मित्र ने सोशल मीडिया पर डाला कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा न तो कोई प्रधानमंत्री है और न ही होगा ,जिन्होंने इस विकट बीमारी को भी खुशी-२ सहन करने व इसका मुकाबला करने के लिये ऐसा आयोजन करवा दिया । वास्तव में कल जो कुछ हुआ वह अवर्णीय है* ।
मैने भी अपने जीवन मे अनेक बन्द व कर्फ्यू देखे उनकी तुलना में यह अतुलनीय है । सन 1965 में भारत -पाकिस्तान की जंग के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री के आह्वान पर दिन में लगभग कर्फ्यू रहता और रात में ब्लैक आउट जिसमे लोग बारी-२ से पहरे देते थे । उन्होंने सभी देशवासियों को अपील भी की थी कि प्रत्येक सोमवार को डिनर में गेहूं के आटे का किसी भी सूरत में प्रयोग न करें । लोगों ने प्रधानमंत्री शास्त्री जी की हिदायत को पूरी तरह से स्वीकार किया । न केवल घरों में बल्कि होटल, ढाबे और हलवाई की दुकानों पर गेंहूआटे की बनी कोई चीज कई महीनों तक नही मिली । मेरे शहर पानीपत में सन 1966 में पंजाब विभाजन के समर्थन में तथा हरियाणा निर्माण के समर्थन में आंदोलन हुआ । इसी दौरान एक नौजवान देसराज पुलिस की गोली का शिकार हुए । आक्रोशित भीड़ उन्मादी साम्प्रदायिक तत्वों के काबू आगयी ,परिणाम स्वरूप शहीद भगत सिंह के साथी क्रांति कुमार , सामाजिक कार्यकर्ता दीवान चंद टक्कर और व्यवसायी संत राम लाम्बा उनके कोपभाजन के शिकार हुए और उन्हें 15 मार्च ,1966 को जिंदा जला कर शहीद कर दिया गया । शहर में कर्फ्यू लगा ,पर वह आंशिक था । राजनीति के एक हिस्से ने उसमे दिलचस्पी नही दिखाई । सन 1971 में भारत-पाकिस्तान लड़ाई के दौरान तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आह्वान पर फिर कर्फ्यू और ब्लैकआउट लगा पर वह भी इतना प्रभावशाली नही । सन 1984 फरवरी में सरकारी उकसावे पर निर्दोष 9 सिख भाइयों की निर्मम हत्या , गुरुद्वारों की जलाने के बाद भी कर्फ्यू लगाया गया । वह भी इतना मुकम्मल नही था क्योंकि बहुसंख्यक उन्मादी तत्व तो इसे क्रिया की प्रतिक्रिया मान रहे थे । परन्तु कल के कर्फ्यू का कोई मुकाबला नही था ,पूरी तरह मुकम्मल । जहाँ कोई परिंदा भी पर नही मार रहा था पर उसके बाद जब हमारे देशवासियों ने इसे हराने के लिये कृत संकल्प होकर घण्टे ,घड़ियाल ,घण्टियों , शंख,ताली और थाली बजा कर आतिशबाजी छोड़ कर और कई स्थानों पर सामूहिक जुलूस निकाल कर अपनी एकजुटता का परिचय दिया वह तो स्मरणीय ही हो गया* । *राजस्थान ,गुजरात ,उत्तरप्रदेश तथा अनेक राज्यों में सामूहिक गान - नृत्य की प्रस्तुति कर हमने सेवाओं के प्रति आभार प्रदर्शन किया वह तो कमाल का ही रहा । जिसके लिये सभी देशवासियों को बहुत -२ साधुवाद व नमन*।
हमारे देश मे पुराने समय से ऐसी अनेक बीमारियां आयी और हमने उन्हें ऐसे ही भगाया । कई बार तो उनकी पूजा-अर्चना करके उन्हें मंदिर ,मढ़ी, थान व छतरियों में विराजित कर दिया । क्योंकि ये छूत की बीमारी की देवी थी अतः उनके सभी मढ़िया-थान मुख्य मन्दिरो से बाहर बनाई गई । इनके संरक्षक भी हमारे कथित अश्पृश्य भाइयो को ही बनाया गया और उनका चढ़ावा भी कोई ताज़ा नही बल्कि बासी यानी बासड़ा । इनके नाम के व्रत भी अर्पित किए गए । बीमारियों के नाम भी बड़ी माता( चिकन पॉक्स), छोटी माता (स्मॉल पॉक्स), सोमवारी माता(जो बुखार पूरे हफ्ते चलता था) ,बुधवारी -बुधो माता(इनका बुखार 3से 4 दिन चलता था) दिए गए । यह बीमारियों के होने पर दवाई निषेद्ध थी ,क्योकि थी ही नही । अपितु देशी टोटके , पूजा -पाठ , धोक व बलि आदि ही थी । प्रशाद में गुड़-आटे के गुलगुले थे, बकरा, मुर्गा ,सुअर था और शराब की बोतल । इनके नाम भी स्वर्ण देवियों से अलग थे जैसे शीतला , मोसम्बी , आदि आदि । इनके भी जागरण होते थे । घण्टे -घड़ियाल , डेरु- डमरू बजाए जाते फिर किसी भक्त में (जो अधिकांश कथित अस्पृश्य ही होता ) के शरीर मे देवी आती और वह चढ़ावे में बलि मांगती । तब कोई बीमार ठीक होता । अब इस कोरोनो की बारी है । इसे भी हम सिद्ध कर लेंगे और कुछ दिनों में यह थक -हार कर किसी भी अश्पृश्य मंदिर , मढ़ी , थान अथवा छतरी में बिठा दी जाएगी और ऐसे होगा इस कोरोनो माता का विसर्जन* ।
मेरे एक मित्र बता रहे थे कि ताली बजाने का यह आईडिया हमने इटली से लिया है । वहाँ भी लोगो ने इस तरह का प्रदर्शन कर वहां के लोगों ने इत्मीनान की सांस ली थी । फिर वहां क्या हुआ ,हम सब जानते है* ।
यह सब प्रदर्शन था जिसको हमने बखूबी किया । पर अब कुछ स्वदर्शन भी होना चाहिए । इस 130 करोड़ की आबादी के देश मे मेडिकल सुविधाओं की स्थिति यह है कि प्रत्येक 11,600 आबादी पर एक डॉक्टर है यानी डॉक्टरों की देश मे कुल संख्या 11,54,686 है । 1826 लोगों पर अस्पताल में एक बेड है यानी देश मे कुल 7,39,024 बेड्स ही है । खतरनाक स्थिति होने पर 84,000 रोगियों पर एक ही आइसोलेटेड बेड है और 36,000 रोगियों के होने पर मात्र एक क्वांरताईन रूम है । हम अभी कोरोना की दूसरी स्टेज से गुजर रहे है । खुदा न खाशता यदि तीसरी स्टेज में आ गए तो क्या दर्दनाक हालात होंगे , सोचिए । हम न तो चीन है ,न अमेरिका और न ही इटली जैसे यूरोपियन देश जहाँ की मेडिकल सुविधाएं अव्वल दर्जे की है । उनके हालात हमारे सामने है । भारत मे अभी लगभग 400 केसेस है और मृत्यु 7 यानी 2 प्रतिशत । ऐसे हालात में कोई पैगम्बर, देवी-देवता , गुरु, नेता ,उत्सव हमे बचाने नही आ रहा । हमने अपने निहित स्वार्थ में प्रकृति ,वन्य जीव-जंतु और पर्यावरण को जो क्षति पहुँचाई ,उसका परिणाम तो हमे ही भुगतना होगा* ।
*वाजिब है कि इस महासंकट का मुकाबला हमे ही एकजुट होकर करना होगा । वह किसी टोटके ,जादू, यंत्र-मन्त्र -तंत्र से।नही अपितु विज्ञान को अपना कर उसका पालन करते हुए जीवन को जी कर । सरकार को भी चाहिए कि वह न तो मूल मुद्दे से भटके और न ही इस उत्सवधर्मी देश को दुष्प्रेरित करे । वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की हिदायतों का पालन करना ही एक मात्र पूजा-पाठ ,ताबीज़ ,प्रार्थना ,दुआ और प्रेयर है । उसको मजाक न बना कर सख्ती से पालन करना ही हमें इस त्रासदी से बचाएगा* ।
राम मोहन राय
पानीपत ( isolated)
23.03.2020
(Inner Voice/ Nityanootan Broadcast Service)
*भारत उत्सवधर्मिता का देश है । हम गम-खुशी सब को उत्सव रूप में लेने के अभ्यस्त है । मेरे एक मित्र ने सोशल मीडिया पर डाला कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा न तो कोई प्रधानमंत्री है और न ही होगा ,जिन्होंने इस विकट बीमारी को भी खुशी-२ सहन करने व इसका मुकाबला करने के लिये ऐसा आयोजन करवा दिया । वास्तव में कल जो कुछ हुआ वह अवर्णीय है* ।
मैने भी अपने जीवन मे अनेक बन्द व कर्फ्यू देखे उनकी तुलना में यह अतुलनीय है । सन 1965 में भारत -पाकिस्तान की जंग के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री के आह्वान पर दिन में लगभग कर्फ्यू रहता और रात में ब्लैक आउट जिसमे लोग बारी-२ से पहरे देते थे । उन्होंने सभी देशवासियों को अपील भी की थी कि प्रत्येक सोमवार को डिनर में गेहूं के आटे का किसी भी सूरत में प्रयोग न करें । लोगों ने प्रधानमंत्री शास्त्री जी की हिदायत को पूरी तरह से स्वीकार किया । न केवल घरों में बल्कि होटल, ढाबे और हलवाई की दुकानों पर गेंहूआटे की बनी कोई चीज कई महीनों तक नही मिली । मेरे शहर पानीपत में सन 1966 में पंजाब विभाजन के समर्थन में तथा हरियाणा निर्माण के समर्थन में आंदोलन हुआ । इसी दौरान एक नौजवान देसराज पुलिस की गोली का शिकार हुए । आक्रोशित भीड़ उन्मादी साम्प्रदायिक तत्वों के काबू आगयी ,परिणाम स्वरूप शहीद भगत सिंह के साथी क्रांति कुमार , सामाजिक कार्यकर्ता दीवान चंद टक्कर और व्यवसायी संत राम लाम्बा उनके कोपभाजन के शिकार हुए और उन्हें 15 मार्च ,1966 को जिंदा जला कर शहीद कर दिया गया । शहर में कर्फ्यू लगा ,पर वह आंशिक था । राजनीति के एक हिस्से ने उसमे दिलचस्पी नही दिखाई । सन 1971 में भारत-पाकिस्तान लड़ाई के दौरान तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आह्वान पर फिर कर्फ्यू और ब्लैकआउट लगा पर वह भी इतना प्रभावशाली नही । सन 1984 फरवरी में सरकारी उकसावे पर निर्दोष 9 सिख भाइयों की निर्मम हत्या , गुरुद्वारों की जलाने के बाद भी कर्फ्यू लगाया गया । वह भी इतना मुकम्मल नही था क्योंकि बहुसंख्यक उन्मादी तत्व तो इसे क्रिया की प्रतिक्रिया मान रहे थे । परन्तु कल के कर्फ्यू का कोई मुकाबला नही था ,पूरी तरह मुकम्मल । जहाँ कोई परिंदा भी पर नही मार रहा था पर उसके बाद जब हमारे देशवासियों ने इसे हराने के लिये कृत संकल्प होकर घण्टे ,घड़ियाल ,घण्टियों , शंख,ताली और थाली बजा कर आतिशबाजी छोड़ कर और कई स्थानों पर सामूहिक जुलूस निकाल कर अपनी एकजुटता का परिचय दिया वह तो स्मरणीय ही हो गया* । *राजस्थान ,गुजरात ,उत्तरप्रदेश तथा अनेक राज्यों में सामूहिक गान - नृत्य की प्रस्तुति कर हमने सेवाओं के प्रति आभार प्रदर्शन किया वह तो कमाल का ही रहा । जिसके लिये सभी देशवासियों को बहुत -२ साधुवाद व नमन*।
हमारे देश मे पुराने समय से ऐसी अनेक बीमारियां आयी और हमने उन्हें ऐसे ही भगाया । कई बार तो उनकी पूजा-अर्चना करके उन्हें मंदिर ,मढ़ी, थान व छतरियों में विराजित कर दिया । क्योंकि ये छूत की बीमारी की देवी थी अतः उनके सभी मढ़िया-थान मुख्य मन्दिरो से बाहर बनाई गई । इनके संरक्षक भी हमारे कथित अश्पृश्य भाइयो को ही बनाया गया और उनका चढ़ावा भी कोई ताज़ा नही बल्कि बासी यानी बासड़ा । इनके नाम के व्रत भी अर्पित किए गए । बीमारियों के नाम भी बड़ी माता( चिकन पॉक्स), छोटी माता (स्मॉल पॉक्स), सोमवारी माता(जो बुखार पूरे हफ्ते चलता था) ,बुधवारी -बुधो माता(इनका बुखार 3से 4 दिन चलता था) दिए गए । यह बीमारियों के होने पर दवाई निषेद्ध थी ,क्योकि थी ही नही । अपितु देशी टोटके , पूजा -पाठ , धोक व बलि आदि ही थी । प्रशाद में गुड़-आटे के गुलगुले थे, बकरा, मुर्गा ,सुअर था और शराब की बोतल । इनके नाम भी स्वर्ण देवियों से अलग थे जैसे शीतला , मोसम्बी , आदि आदि । इनके भी जागरण होते थे । घण्टे -घड़ियाल , डेरु- डमरू बजाए जाते फिर किसी भक्त में (जो अधिकांश कथित अस्पृश्य ही होता ) के शरीर मे देवी आती और वह चढ़ावे में बलि मांगती । तब कोई बीमार ठीक होता । अब इस कोरोनो की बारी है । इसे भी हम सिद्ध कर लेंगे और कुछ दिनों में यह थक -हार कर किसी भी अश्पृश्य मंदिर , मढ़ी , थान अथवा छतरी में बिठा दी जाएगी और ऐसे होगा इस कोरोनो माता का विसर्जन* ।
मेरे एक मित्र बता रहे थे कि ताली बजाने का यह आईडिया हमने इटली से लिया है । वहाँ भी लोगो ने इस तरह का प्रदर्शन कर वहां के लोगों ने इत्मीनान की सांस ली थी । फिर वहां क्या हुआ ,हम सब जानते है* ।
यह सब प्रदर्शन था जिसको हमने बखूबी किया । पर अब कुछ स्वदर्शन भी होना चाहिए । इस 130 करोड़ की आबादी के देश मे मेडिकल सुविधाओं की स्थिति यह है कि प्रत्येक 11,600 आबादी पर एक डॉक्टर है यानी डॉक्टरों की देश मे कुल संख्या 11,54,686 है । 1826 लोगों पर अस्पताल में एक बेड है यानी देश मे कुल 7,39,024 बेड्स ही है । खतरनाक स्थिति होने पर 84,000 रोगियों पर एक ही आइसोलेटेड बेड है और 36,000 रोगियों के होने पर मात्र एक क्वांरताईन रूम है । हम अभी कोरोना की दूसरी स्टेज से गुजर रहे है । खुदा न खाशता यदि तीसरी स्टेज में आ गए तो क्या दर्दनाक हालात होंगे , सोचिए । हम न तो चीन है ,न अमेरिका और न ही इटली जैसे यूरोपियन देश जहाँ की मेडिकल सुविधाएं अव्वल दर्जे की है । उनके हालात हमारे सामने है । भारत मे अभी लगभग 400 केसेस है और मृत्यु 7 यानी 2 प्रतिशत । ऐसे हालात में कोई पैगम्बर, देवी-देवता , गुरु, नेता ,उत्सव हमे बचाने नही आ रहा । हमने अपने निहित स्वार्थ में प्रकृति ,वन्य जीव-जंतु और पर्यावरण को जो क्षति पहुँचाई ,उसका परिणाम तो हमे ही भुगतना होगा* ।
*वाजिब है कि इस महासंकट का मुकाबला हमे ही एकजुट होकर करना होगा । वह किसी टोटके ,जादू, यंत्र-मन्त्र -तंत्र से।नही अपितु विज्ञान को अपना कर उसका पालन करते हुए जीवन को जी कर । सरकार को भी चाहिए कि वह न तो मूल मुद्दे से भटके और न ही इस उत्सवधर्मी देश को दुष्प्रेरित करे । वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की हिदायतों का पालन करना ही एक मात्र पूजा-पाठ ,ताबीज़ ,प्रार्थना ,दुआ और प्रेयर है । उसको मजाक न बना कर सख्ती से पालन करना ही हमें इस त्रासदी से बचाएगा* ।
राम मोहन राय
पानीपत ( isolated)
23.03.2020
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